क्या जगत वास्तव में मिथ्या है ?
अक्सर आध्यात्मिक गुरुओं से, धार्मिक ग्रंथों में पढ़ने को मिलता है कि यह सब जगत मिथ्या है, एक आभास मात्र है, माया से अधिक कुछ नहीं है | आजकल के कुछ अति-शिक्षित व्यक्ति इस अवधारणा का उपहास भी किया करते हैं क्योंकि ये लोग अपनी स्थूल ज्ञानेन्द्रियों को ही अंतिम सत्य मान बैठते हैं |
पर ज़रा हम विचार करके देखें तो दिखाई देता है कि टीवी पर हम विभिन्न कलाकारों को चलते फिरते बोलते देखते हैं, उनके साथ हंसते हैं, रोते हैं पर टी वी में जो कुछ दिखाई देता है, वह केवल ध्वनि एवं प्रकाश तरंगें नहीं हैं क्या ? हम कागज़ पर जिस फोटो को छापा हुआ देखते हैं वह क्या है – सिर्फ कुछ रसायनों का मिश्रण ही तो है| जब प्रकाश और छाया का संयोजन एक विशेष स्वरूप ले लेता है तो हम कहते हैं कि ये मेरा बच्चा है, ये मेरी पत्नी है | यह सब माया नहीं तो और क्या है ? जो लोग समझते हैं कि यह फोटो लैब में कैसे बनाई जाती है, टीवी पर सिग्नल कैसे भेजे और प्राप्त किये जाते हैं – उनकी सोच बाकी सब लोगों से भिन्न हो जाती है | इलेक्ट्रोनिक्स का इंजीनियर जब टीवी को देखता है तो उसे टीवी पर कौन कलाकार है, यह नहीं दिखाई देता | उसका ध्यान तो इस बात पर अधिक केंद्रित रहता है कि सिग्नल ठीक से आ रहे हैं या नहीं – brightness, contrast और resolution कैसा है | वह इस माया के आर – पार देखने में समर्थ हो जाता है | इसे ही बुद्धि एवं ज्ञान का विस्तार कह सकते हैं | अक्सर लोग माया के जाल से बाहर नहीं निकल पाते इसका कारण यही है कि यह बात वह समझ नहीं पाते कि जो कुछ आँखों को दिखाई दे रहा है, वह केवल optical illusion (दृष्टि भ्रम) है| जो व्यक्ति यह बात समझाना चाह रहा है उसकी बुद्धि पर भी उनको भरोसा नहीं होता | ऐसे में समझाने वाले के लिए यह अनिवार्य है कि उसका ज्ञान किसी भी मायने में उस व्यक्ति से कम न हो जिसे समझाने की आवश्यकता है | वह जिस भाषा को समझता है, उसे उसकी ही भाषा में समझाया जाना चाहिये | तभी वह उस अपरिचित ज्ञान को हृदयंगम कर सकेगा |