हम और हमारा शरीर
क्या आपके साथ कभी कुछ ऐसा हुआ है कि रात को सोने से पहले आपको प्यास लगी थी, पानी आ पाता इससे पहले ही आपको नींद आ गई! रात भर नींद में भी प्यास लगती रही, कभी कुँए के पास जाते, कभी झील की ओर, कभी पानी का नलका खोल कर देखते पर पानी कहीं नहीं मिला !
वास्तव में आपकी पानी की प्यास आपकी शारीरिक आवश्यकता है| इस प्यास की संतुष्टि के लिए यह आवश्यक है कि आप बिस्तर से उठ कर रसोई में जाएँ, पानी पियें और तब आकर पुनः सो जाएँ| अब आपको प्यास वाले सपने नहीं आयेंगे!
हमारा अवचेतन मन हमारे शरीर का एक अत्यंत कुशल मैनेजर है जो हमारे शरीर के अंदर मौजूद सभी सिस्टम्स को भली प्रकार संचालित करने के लिए उत्तरदायी है | इस अवचेतन मस्तिष्क की तुलना हम एक शक्तिशाली कम्प्यूटर से कर सकते हैं जिसे माँ प्रकृति ने (या भगवान ने, जो भी आप समझना चाहे समझें;) हमारे शरीर के आतंरिक कार्यों के सुचारू संचालन के लिए ठीक प्रकार से प्रोग्राम कर के भेज रखा है| तभी तो, जो नवजात शिशु दूध क्या होता है, इस बात को अभी जानता तक नहीं, माँ का दूध प्रथम बार ग्रहण करने के बाद भी इसे हजम करना जानता है। यह कुछ ऐसे ही है कि हमने कंप्यूटर खरीद कर सीखना आरम्भ किया, अभी हमें कुछ नहीं आता पर स्विच ऑन करते ही कंप्यूटर बहुत सारे कार्य खुद ब खुद करने आरम्भ कर देता है क्योंकि जिस कंपनी ने यह कंप्यूटर बनाया है, उसने बहुत सारी प्रोग्रामिंग पहले से ही कर के हमें दी है। हमारे शरीर के सारे आतंरिक क्रिया कलाप (internal bodily functions of skeleton, digestive, circulatory, nervous, endocrinological, excretory systems etc.) अवचेतन मस्तिष्क में पहले से ही कर दी गई प्रोग्रामिंग के अनुरूप चलते हैं | हमें उनका संचालन करना सीखना नहीं पड़ता | अस्तु !
हमारा शरीर जब पानी कीआवश्यकता अनुभव करता है तो यह बात हमारे शरीर के मैनेजर यानी अवचेतन मस्तिष्क तक पहुँचती है। यह अवचेतन मस्तिष्क हमें प्यास की अनुभूति देता है और हम पानी पीकर अपनी तृषा को शांत कर लेते हैं। पर यदि हम सोये हुए हों तो अवचेतन मस्तिष्क हमें ऐसे सपने दिखाने लगता है जिसमे हम प्यास के कारण पानी की तलाश में दर दर भटकते फिरते हैं पर पानी नहीं मिलता, उन स्वप्नों में हम बार – बार पानी के स्रोत पर पहुंचते हैं,अंजुलि पानी की ओर बढाते हैं पर पानी का स्रोत सूख जाता है, हमें पानी नहीं मिल पाता! फल यह होता है कि बेचैनी के कारण हमारी आँख खुल जाती है, हम रसोई में जाकर पानी पी लेते हैं और संकट दूर हो जाता है।
स्पष्ट ही है कि कर्म करने का दायित्व और कर्म करने की क्षमता सिर्फ शरीर में ही है| इस शरीर के आभाव में हम कर्म नहीं कर सकते इसलिए इस शरीर की क्षमताओं को समझना और उनका अपने उत्थान हेतु अधिकतम उपयोग करना जीवन में आगे बढ़ने के लिए अनिवार्य है। हम अस्वस्थ हों तो जीवन में कुछ करने लायक ही नहीं रहते। शरीरं आद्यं खलु धर्म साधनं! (Our body is the primary instrument for performance of our duties) हमारे ऋषियों ने ये बात कही है तो इसका यही अर्थ मुझे समझ आता है। इसी बात को आगे बढाते हुए यह भी कहा गया है –
उद्यमेन हि सिध्यन्ते,कार्याणि न मनोरथै !
न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः |
“उद्यम करने से, परिश्रमकरने से ही कार्य सिद्ध होते हैं, सिर्फ मनोरथ रखने से नहीं | सोते हुए शेर के मुख में मृग खुद ब खुद प्रवेश नहीं किया करते।”
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि-
१- हम और हमारा शरीर – दोनों अलग-अलग हैं, दोनों को एक समझ लेना भूल है। हम इस शरीर के मालिक हैं और ये शरीर हमारा अत्यन्त उपयोगी नौकर है।
२- हम अपने शरीर को जितना अधिक उपयोग में लाते हैं, ये उतना ही मज़बूत और कुशल होता चला जाता है। इसके ठीक उलट, यदि हम इसे आरामतलबी की आदत डाल दें तो उसे धीरे – धीरे जंग लगने लगता है और यह हमारे किसी काम का नहीं रह जाता। उल्टे हमारा समय इसकी देखभाल में और डॉक्टर के यहां चक्कर काटने में ही बरबाद होने लगता है। यदि ऐसा हो तो, जो शरीर हमारे लिये अद्भुत सेवा कार्य कर सकता था, हमारी बहुत महत्वपूर्ण संपत्ति हो सकता था, वह हमारी जिम्मेदारी बन कर रह जाता है। इसका सही उपयोग करना, इसे काम करने लायक स्थिति में रखना सीखना आवश्यक है। यदि शरीर हमारा स्वस्थ हो तो हमारे लिये दुनिया में कोई भी कार्य असंभव नहीं होता पर अगर हमने अपने शरीर को आराम की आदत डाल रखी है तो यही शरीर हमें कुछ भी करने लायक स्थिति में नहीं रहने देता। यदि हमारी कार विश्वसनीय है और रास्ते में दग़ा नहीं देती तो हम अपनी कार में आराम से पूरे भारत का भ्रमण करके आ सकते हैं। परन्तु यदि हमारी कार हर दस किलोमीटर पर खराब हो जाये, कभी इंजन गर्म हो और कभी टायर में पंक्चर हो जाये तो भारत भ्रमण की तो क्या कल्पना करें, मैकेनिक और गैराज़ का ही भ्रमण करते करते जीवन बीत जायेगा।
३- कर्म करने की क्षमता केवल शरीर के ही पास है, यदि हम कुछ पाने के लिए आकुल और व्याकुल हैं पर यह शरीर हमारे पास नहीं है, तो हम ‘प्रेत योनि’ में भटकते रहते हैं। प्रेत योनि में रहते हुए हम दूसरा शरीर पाने का या, कुछ समय के लिए ही सही, दूसरे शरीर पर अधिकार करने का प्रयास करते हैं ताकि अतृप्त इच्छा की पूर्ति कर सकें या अपनी इच्छा दूसरे शरीर के माध्यम से अभिव्यक्त कर सकें। अपने पूर्वजों की ज्ञात अतृप्त इच्छाओं को पूरा करके हम उनको प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने में सहयोग कर सकते हैं। यह कुछ ऐसे ही होगा जैसे किसी सोते हुए व्यक्ति का मुंह खोल कर उसे पानी पिला देना।