लोभ और भोग ही आसुरी वृत्ति हैं – याज्ञिक जी महाराज
सहारनपुर (26 मई) : हिरण्यकाक्ष लोभ का प्रतीक है और वराह भगवान यज्ञ स्वरूप हैं। सत्कर्म को ही यज्ञ कहते हैं। सर्वजन हिताय किये जाने वाले कार्य ही यज्ञ हैं। लोभी व्यक्ति असंतोष के कारण सब कुछ होने के बावजूद अशान्त रहता है और मानसिक रूप से पीड़ित रहता है। लोभ पाप की ओर धकेलता है, जब लोभ मन से मरेगा तभी पापकर्म बन्द होंगे। धर्म की मर्यादा के विरुद्ध जाने वाला धन मन को बिगाड़ता है। हिरण्याक्ष का लोभ इतना बढ़ गया था कि पृथ्वी के सभी राजाओं को पराजित करने के बावजूद उसको संतोष नहीं हुआ। तब भगवान ने वराह (संतोषावतार) अवतार लेकर उसका उद्धार किया।
आज के कथा प्रसंग को सुनाते हुए व्यासपीठ से पं. जय प्रकाश याज्ञिक ने कहा कि भोग के प्रतीक हिरण्यकशिपु का उद्धार करके भगवान नृसिंह ने जगत को ये बोध कराया कि वह सर्वत्र हैं, सदैव हैं, और सर्वज्ञ हैं। वही प्राणिमात्र की रक्षा करते हैं।
जगत की प्रत्येक सम्पदा जीवमात्र के लिये ही है इनका दोहन करें, शोषण नहीं ! गाय, बकरी का दूध उपयोग के लिये लेना दोहन है किन्तु गाय या बकरी को मार कर खा जाना उनका शोषण है। हमारा अधिकार दोहन का है, शोषण का नहीं!