विद्वान होना काफी नहीं, सच्चरित्रता भी आवश्यक है।
सहारनपुर – 3 अप्रैल, 2018 : आवास विकास स्थित श्री हरि मंदिर में चल रही श्रीमद् भागवत कथा के दूसरे सत्र में कथा व्यास भागवत भूषण पं. जय प्रकाश याज्ञिक जी महाराज ने अन्तःकरण की शुद्धि का सरल मार्ग बताया । उन्होंने कहा कि अन्तःकरण में मन, बुद्धि, चित्त और अहं – ये चार तत्व सम्मिलित हैं। अन्तःकरण को शुद्ध करने के लिये श्रीमद्भागवत कथा का श्रवण नियमित रूप से किया जाना चाहिये। उन्होंने कहा कि विद्वान या प्रतिभाशाली होने से आपका अन्तःकरण भी पवित्र हो जायेगा, यह अनिवार्य नहीं है। जीवन में सफलता के लिये जहां विद्वता महत्वपूर्ण होती है, वहीं अन्तःकरण की शुद्धि भी अनिवार्य है। एक कुटिल विद्वान तात्कालिक रूप से सफल हो सकता है किन्तु वह कभी प्रसन्न और सहज नहीं रह सकता । आन्तरिक प्रसन्नता का उसमें सदैव अभाव ही रहता है जो अन्तःकरण की पवित्रता और शुद्धि से आती है। छल-कपट से दूर नन्हा बालक सदैव आनन्दित रहता है, उसको कभी नींद की गोलियों की जरूरत नहीं पड़ती है, वैसे ही हमें भी यदि अन्तःकरण को शुद्ध और पवित्र रखना है तो श्रीमद् भागवत का श्रवण उसका सरलतम साधन है।
याज्ञिक जी ने बताया कि अन्तःकरण की मलिनता दूर करने के तीन साधन हैं – यज्ञ, दान और तप ! निस्वार्थ भाव से किये गये समाज सेवा के कार्य को ही यज्ञ कहा जाता है। बिना बदले में कुछ पाने की आकांक्षा लिये किसी की आवश्यकताओं की पूर्ति करना ही दान है। यह दान धन का, देह का, योग्यता का, विद्वता का, समय का – कोई सा भी हो सकता है। आर्थिक रूप से कमज़ोर किसी विद्यार्थी को उसकी शिक्षा प्राप्ति में सहायता देना सर्वोत्तम दान है। ऐसे ही नेत्रदान, देहदान आदि की भावना भी हमें पवित्र और उच्च नैतिक धरातल प्रदान करती है। तप का अर्थ सिर्फ यही नहीं होता कि आप हिमालय की कंदरा में जाकर कंद, मूल और फल खाकर महीनों और वर्षों तक तपस्या करें। शरीर और इन्द्रियों की आवश्यकताओं पर लगाम लगाते हुए किसी भी कठिन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये प्रयास करना ही तपश्चर्या है। इस प्रकार हम यज्ञ, दान और तप को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखते हुए कार्य करते हैं तो अपने अन्तःकरण की शुद्धि सुनिश्चित कर सकते हैं। भागवत श्रवण से ये तीनों हमें प्राप्त हो जाते हैं और हम सच्चे भगवत भक्त हो जाते हैं।
कथा व्यास ने कहा कि हम दुर्योधन वृत्ति से बचें जो कुटिलता, क्रोध, मनोविकार और अहंकार से जन्मती है और पांडवों की भांति भगवत शरण में रहते हुए निष्काम भाव से यथोचित कर्म करते रहें, यही हमारा धर्म है और जीवन रूपी कुरुक्षेत्र में विजय प्राप्त करने के लिये यही धर्म की शिक्षा भी है।