निष्काम कर्म करना ही सच्ची पूजा : याज्ञिक जी

कथाव्यास पं. जय प्रकाश याज्ञिक जी महाराज
सहारनपुर – 4 अप्रैल, 2018 : “यदि आप अपना उद्धार करना चाहते हैं तो प्राणिमात्र के कल्याण की भावना और निस्वार्थ भाव से कर्म करने का स्वभाव बनाएं – यही मानव धर्म है।“ हरि मंदिर, आवास विकास में श्री रामकृष्ण सेवा संस्थान (रजि.) द्वारा आयोजित श्रीमद् भागवत सप्ताह ज्ञान यज्ञ के तीसरे सत्र में कथा व्यास भागवत भूषण पं. जय प्रकाश जी ’याज्ञिक’ ने भारी संख्या में उपस्थित श्रद्धालुओं को धर्म का मर्म बताते हुए बताया कि सृष्टि में हर किसी का अपना एक निश्चित उद्देश्य है, अपना एक निश्चित स्वभाव है और उस स्वभाव के अनुकूल कर्म करना होता है – जो उसका धर्म कहलाता है। प्रसन्नता, शांति और प्रेम की कामना हम मानवों का मूलभूत और आत्मिक स्वभाव है। वे दुष्ट व्यक्ति जो दुनिया को सताते हैं, वह भी अपने घर में प्रसन्नता, शांति और प्रेम की कामना करते हैं। बिना इनके हम सुखी नहीं रह सकते। यह प्रसन्नता, शांति और प्रेम हमें तब मिलती है जब हम अपने अपने कर्तव्य का सही ढंग से निर्वाह करते हैं।

श्री हरि मंदिर आवास विकास सहारनपुर में श्रीमद भागवत कथा का श्रवण करते श्रद्धालु
याज्ञिक जी ने बताया कि परिस्थिति और प्रारब्धजन्य प्रतिकूलता के वशीभूत अक्सर हमारा मानसिक संतुलन डगमगा जाता है। इस स्थिति में हमारे लिये आवश्यक हो जाता है कि हम इस प्रतिकूलता को अपने धैर्य की परीक्षा मानते हुए प्रभु की इच्छा को पहचानें और उसमें सफलता प्राप्त करें। महाभारत की परिस्थितियों का वर्णन करते हुए उन्होंने बताया कि सभी पांडव दीर्घ काल तक प्रतिकूल परिस्थितियों में रहे किन्तु उन्होंने योगेश्वर श्रीकृष्ण के प्रति अपने परम विश्वास को कभी आंच नहीं आने दी और प्रभु इच्छा के अनुसार निष्काम भाव से अपना – अपना कर्म करते रहे । उनकी भगवत भक्ति का ही परिणाम उनको सफलता के रूप में मिला। द्रोपदी, उत्तरा, कुन्ती, सुभद्रा और पांचों पांडव ऐसे ईश अनुरागी भगवत भक्त थे। वे सदैव शास्त्रों की मर्यादा का पालन करते हुए साधु सन्तों की सेवा करते रहे। इन्हीं के वंश में परीक्षित ने जन्म पाया। परीक्षित में आनुवंशिकी पवित्रता थी परन्तु कलियुग का स्पर्श पाकर कुछ क्षणों के लिये मन व बुद्धि का संतुलन नहीं रह पाया परिणाम स्वरूप नकली साधु को असली समझ बैठे और शापित हो गये। भूल का सुधार किया और संत सदगुरु देव शुकदेव जी की शरण लेकर प्रायश्चित किया। सत्संग में हमको विवेक मिलता है तभी हम असली नकली की पहचान कर पाते हैं। ठगों से बच पाते हैं और असली महापुरुषों और संतों का आशीर्वाद पाते हैं।
याज्ञिक जी ने कहा कि मनुष्यों के लिये सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है जिस्से भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में अनुराग और भक्ति प्रबल हो। भक्ति भी ऐसी होनी चाहिये जिसमें कुछ पाने की लालसा न हो, निष्काम भाव से की गयी भक्ति ही सफल होती है। यह भक्ति निरन्तर और शाश्वत स्वरूप लिये हुए हो। ऐसी भक्ति से ही हृदय के आंगन में परमात्मा का आगमन होता है और जीवन कृतकृत्य हो जाता है। श्रीकृष्ण में भक्ति भाव उपज जाये तो ज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति होती है। उन्होंने कहा कि धर्म का ठीक – ठीक अनुष्ठान करने पर भी यदि मनुष्य के हृदय में भगवान की लीला – कथाओं के प्रति अनुराग न पनपे तो वह श्रम मात्र होकर रह जाता है। धर्म का फल मोक्ष होता है, उसकी सार्थकता धन प्राप्ति में नहीं है। जो लोग आर्थिक समृद्धि के उद्देश्य से धर्म कर्म से जुड़ते हैं, उनको कभी भी भगवत प्राप्ति नहीं होती है। अर्थ का उद्देश्य भी धर्म का पालन ही होना चाहिये। भोग विलास उसका फल नहीं है। जीवन का फल भी तत्वजिज्ञासा है।
महाराज जी ने कहा कि प्रकृति के तीन गुण हैं – सत्व, रज और तम। इनको स्वीकार करना ही होता है, आप इन से बच नहीं सकते, हां संतुलन अवश्य बनाये रखना सीखना होता है। प्रलय के लिये एक अद्वितीय परमात्मा ही विष्णु, ब्रह्मा और रुद्र ये तीन नाम ग्रहण करते हैं। फिर भी मनुष्यों का परम कल्याण तो सत्वगुण स्वीकार करने वाले श्रीहरि से ही होता है।