बिना आसक्ति के उपभोग ही श्रेष्ठ : भागवत भूषण
सहारनपुर – 5 अप्रैल, 2018 : हरि मंदिर, आवास विकास में श्री रामकृष्ण सेवा संस्थान (रजि.) द्वारा आयोजित श्रीमद् भागवत सप्ताह ज्ञान यज्ञ के चौथे सत्र में कथा व्यास भागवत भूषण पं. जय प्रकाश जी ’याज्ञिक’ ने उपस्थित श्रद्धालुओं को कहा कि शरीर धर्म के निर्वाह के लिये शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति करना आवश्यक है, और इनकी पूर्ति करना सामाजिक धर्म है। किन्तु शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति करना अलग बात है और भोग विलास में आसक्ति अलग बात है। आसक्ति युक्त भोग से वासना दृढ़ होती है और जीव का मन इन्हीं वासनाओं में उलझा रहने के कारण वह बार – बार जन्म लेता है। यही उसकी विविशता है। यदि किसी पुण्यकर्म के कारण सत्संग प्राप्त हो जाये तो प्राणी को अपनी समस्या का बोध हो जाता है और वह इस बंधन से मुक्त होना चाहता है। निष्कामता और अनासक्ति ही पूर्ण तृप्ति है । ये कर्म वासनाएं ही जीव को शरीर में रखती हैं।
याज्ञिक जी ने बताया कि मनुष्य जब सतोगुणी होकर जीवन जीता है तो खुद भी आनन्दित होता है और बाकी सब को भी आनन्दित रखता है। असद् वासना मानव को दानव बना देती है और भोगी का जीवन सदैव चिन्ता और शोक से भरा रहता है। हिरण्यकशिपु असद् वासना और भक्त प्रह्लाद सद् वासना के प्रतीक हैं । असद्वासना से ग्रसित प्राणी मूढ़ और अहंकारी होकर हर किसी को पीड़ा ही पहुंचाते हैं। ये अपनी सारी सम्पत्ति और शक्ति को भोग विलास के लिये ही समझते हैं। शुकदेव जी ने समझाया है – मनुष्य की अपनी ही अच्छी और बुरी वासनाएं उसके लिये भावी शरीर का निर्माण करती हैं। दो प्रकार के लोभ से ग्रसित व्यक्ति धन संग्रही होकर ममता से ग्रसित हो जाता है और अपने दिव्य शरीर से वंचित हो जाता है। दूसरी ओर प्रह्लाद हर परिस्थिति में प्रभु चरणों में दृढ़ अनुराग रखता है।
याज्ञिक जी ने समझाया कि अपने जीवन को धर्मानुकूल बनाओ, परिवार का पालन पोषण करना हम सबका कर्तव्य है। परन्तु मोह माया में फंस कर येन-केन-प्रकारेण सत्ता और धन-सम्पत्ति हासिल करने की चेष्टा या दूसरों पर अधिकार करने की चेष्टा पाप है, अनर्थ है। अनीति, अन्याय और अनाचार से धनार्जन कभी नहीं करना क्योंकि पापकर्मों का दंड तो भोगना ही होता है, आज नहीं तो कल सही। आसक्ति युक्त जीव ही गजेन्द्र है, जो अनेक योनियों में भटकता रहता है। यहां के संबंधी हमें मृत्यु से बचा नहीं सकते, बचा सकता है तो केवल हरिनाम ! अन्त समय में गजेन्द्र ने हरिनाम पुकारा और उसका उद्धार हो गया। अपने स्वभाव को बिगड़ने मत दो अन्यथा प्राप्त संपदा भी छिन जायेगी। देवता भी इस नियम से मुक्त नहीं हैं। इन्द्रासन पाकर इन्द्र अहंकारी हो गया और उसका जीवन संकटग्रस्त हुआ।