ब्रह्मलीन संत पथिक जी महाराज
“श्री गुरुकृपा हि केवलम्”
आपका जन्म संवत् १९३५ में जिला फतेहपुर ग्राम बकेवर में हुआ था। आपका बचपन ग्राम साढ़, जिला कानपुर में बीता। आपके पिता ने आपका नाम गया प्रसाद त्रिवेदी रखा था परन्तु आप ब्रह्मचारी के नाम से ही प्रसिद्ध रहे। गुरु महाराज ने आपका नाम ’पलकनिधि’ रखा था। बचपन से ही आपकी रुचि इस लोक से अधिक अलौकिक जगत में जागृत हो चुकी थी और आत्मा-परमात्मा, इहलोक-परलोक, सृष्टि के विभिन्न रहस्यों को जानने की लालसा में आप स्थान – स्थान पर घूमते विचरते और तप करते रहे। आपकी खोज पूरी हुई तब जब आपको गुरु के रूप में नागा बाबा मिले। उनके मार्गदर्शन में रहते हुए आपने मानव-सेवा को ही परमात्मा की सच्ची सेवा मानने का व्रत लिया और फिर विभिन्न विद्यालयों का निर्माण कराया। संत पथिक जी महाराज युवावस्था से ही अपने शरीर के प्रति अत्यन्त कठोर रुख अपनाते हुए कष्ट सहने के लिये इसे तैयार करते रहे। टाट का अंचला, लंगोटी, बिछाने – ओढने के लिये भी टाट का प्रयोग करना, भोजन के नाम पर चना और गेहूं को अंकुरित करके ग्रहण कर लेना – इस प्रकार का तपस्यापूर्ण जीवन जीते – जीते आप सदैव अपने शिष्यों को भी कष्ट सहने की शिक्षा देते रहे। वह हमेशा यही समझाते रहे – “बेटा, बर्दाश्त करना ही सिद्धि है। जिसको संसार में सहन करना आ गया वही सच्चा और अच्छा साधु होता है। ऐसा साधु ही प्रभु प्रदत्त मनुष्य जीवन का रहस्य प्राप्त करके दुष्टों को भी सन्त और साधु बना पाता है। सहन करे सो साधु – बस सहते चलो और भले और भलाई के काम करते चलो। मान-अपमान, सुख-दुःख, लाभ-हानि, ये सब तन और मन की परिस्थितियां हैं। अनुभव करते रहें कि मैं शरीर नहीं, मैं मन नहीं वरन् मैं शुद्ध-बुद्ध-मुक्त सच्चिदानन्दघन अद्वितीय परमात्मा से एक हूं। ऐसा निश्चय करके, प्रतिकूल परिस्थितियों से अपने को निकाल लें। गुरुदेव अपना अधिकांश समय सीतापुर में ही व्यतीत करते थे। आपने अठसराय में नागा निरंकारी विद्यालय बनवाया। जिला कानपुर ग्राम साढ़ में भी आपने विद्यालय बनवाया है। ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी, तदनुसार १० जून १९९७ को परमार्थ आश्रम, हरिद्वार में आपका शरीर पूर्ण हुआ। वहीं भव्य संत पथिक समाधि मंदिर बना हुआ है।
सद्गुरुदेव की महिमा इसी तथ्य से स्पष्ट हो जाती है कि आपके विभिन्न शिष्य आपसे प्राप्त की हुई शिक्षा के प्रकाश में अपना संपूर्ण जीवन अर्पित करते हुए कार्यरत हैं और सबके मन में एक ही मंत्र गूंजता रहता है- “श्री गुरुकृपा हि केवलम्”
भागवत् भूषण पं. जय प्रकाश जी याज्ञिक इन्हीं सद्गुरुदेव के शिष्यों में से एक हैं जो अपनी सद्वाणी, सद्विचार व सद्भावना का प्रकाश श्री रामकृष्ण सेवा संस्थान के माध्यम से सब ओर फैला रहे हैं।
स्वामी विवेकानन्द जी महाराज
नर सेवा ही नारायण सेवा
श्री रामकृष्ण सेवा संस्थान की सेवा गतिविधियों को जिस राष्ट्रपुरुष से सबसे अधिक प्रेरणा प्राप्त होती है, वह हैं स्वामी विवेकानन्द जी! जीव मात्र के प्रति अगाध करुणा का भाव, दीन-हीन विपन्न मानव की सेवा में ही ईश्वर की सेवा मानने की चित्तवृत्ति भागवत् भूषण पं. जयप्रकाश जी ’याज्ञिक’ जी ने स्वामी विवेकानन्द जी से ही पाई है। गांव – गांव में चिकित्सकों की टीम लेकर पहुंचना और स्वास्थ्य सेवा शिविर, रक्तदान शिविर आयोजित करते रहना नर सेवा ही नारायण सेवा के आदर्श का प्रकटीकरण है।
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