What actions lead us to salvation?
अंहता, ममता, आसक्ति और कामना से रहित होकर प्रभु प्रीत्यर्थ कर्म करें। यही निष्काम कर्मयोग है।
जन्म जन्मान्तर में किये हुये शुभाशुभकर्मों के संस्कारों से यह जीव बन्धा हुआ है तथा इस मनुष्य शरीरमें पुनःअंहता, ममता,आसक्ति अथवा कामना से नये-2 कर्म करके ये जीव ओैर भी अधिक कर्म बन्धसे जकड़ा जाता है।परिणाम में अशान्त और दुःखी रहता है। हम कर्म करते समय ऐसी क्या सावधानी रखें कि हमारा जीवन पूर्णानन्द से परिपूर्ण हो जाये-
कायेन वाचामनसेन्द्रियैवा बुद्धयात्मना वाङनुसृतस्वभावात् ।
करोति यद्यत्सकलं परस्मैनारायणायेति समपयेत् तत्। (श्रीमद्भागवत, 11/2/36)
यह श्लोक मेरे बचपन का साथी है – जबमुझको लिखना भी नहीं आता था तब मुझको मेरे पूज्य पितामह ने याद कराया था। प्रतिदिन इसको भोजन से पूर्व बोलते थे। आइये, इसका भाव समझने का प्रयास करें।
हम अपने वर्ण, स्वभाव औरगुणानुसार भगवान की आराधना पूजा आदि तो अवश्य करें,परन्तु साथ- 2 विचार करें कि हम मानव तो हैं हमारे भीतर मानवता भी है अथवा नहीं। मानवता अर्थात मानव धर्म — सत्य, दया,दान औरपवित्रता। मानव में ये धर्म के चार अंग होने पर ही मानवता पूर्ण होती है। तभी वह जो करता है वहशास्त्र विहित उत्तम क्रिया मानी जाती है इसीको कर्म कहते है औरसमभाव का नाम ही योग है। इसलिये जो कर्मशास्त्र विहित है वही प्रभु प्रेरित माने जाते हैं औरप्रभु प्रेरित कर्म करने पर ही मानव द्वारा परमात्मा प्रसन्न होते है। परमात्मा की प्रसन्नता ही मानव के जीवनमें पूर्णानन्द प्रकट करती है। ऐसे ही कर्मो को निष्काम कर्म योग की श्रेणी में रखा गया है।
उपरोक्त मन्त्र में भी ऋषियों की यही प्रेरणा है – शरीर से जो काम करो, वाणी से जो बोलो, मन से जो संकल्प करो, इन्द्रियोंसे देखना सुनना, बुद्धि से निश्चय और विचार, साथ-2 स्वभाव (आदत) से भी जो हो रहा है वह मन प्रेरित (कामनायुक्त) न होकर प्रभु प्रेरित हो जाये और प्रभु को समर्पित हो जाये – ऐसी ही साधना आत्मा को परमात्मा के अति निकट ले जाती है। जो कुछ करो, वह पूरा का पूरा ‘परस्मैनारायणाय इदंन मम’ की भावना से करें, यही भागवत धर्म है। इसी को मानव धर्म भी कहते हैं।
कर्म करते हुए अपना भाव बनाये- “जो कुछ किया है और जो कुछ करूंगा, उसका कर्ता मैं नहीं प्रभु आपहैं। ऐ परमात्मा, आप ही उसके भोक्ताहैं। देह के भीतर बैठा हुआ जो चैतन्य (आत्मा) है वही परमात्माका अंश है, वही मेरा स्वरूप है। इस भाव से जो होगा, वह पारमार्थिक कर्म होगा, जो आनन्द और प्रसन्नता से हमारे अन्तकरण को पवित्र और आनन्दित करेगा।
इसके विपरीत- आसक्ति ;ममता, अहंता और कामना हमें कर्तव्य कर्म मेंबांधने कीऔर लेजाती है अर्थात् हम उस कर्मको अपना मानकर उससेअपना स्वार्थसिद्ध करना चाहते हैं।ध्यान रखें-
आसक्ति होनेपर हम कर्म के द्वारा राजसी या तामसी सुख प्राप्त तो करते हैं लेकिन उसमें ही बंध जाते हैं। अहंकारवश या ममता वश या निज स्वार्थ पूर्ति के लिये किये हुए कर्म अथवा दूसरों को पीड़ित करने के भाव से जोकर्म होते हैं, शास्त्रोंमें ऐसे कर्मो को निन्दित कर्म कहा गया है। ये कर्म हमें क्षणिक सुखका आभास तो करा देते हैं परन्तु इनका दूरगामी फल दुःखद ही होता है जिससे हमारा मन हमेशा अशान्त ही रहता है।
इसीलिये प्रभुप्रेरित औरप्रभु प्रीत्यर्थकर्म ही हमारे अन्तःकरणमें सात्विकऔर दिव्य प्रसन्नता को प्रकट करते है।सात्विक प्रसन्नता का आधार प्राणी-पदार्थ, कर्म या परिस्थिति नहीं होते अपितु कर्तव्य कर्म करने वाले मनुष्य का सद्भाव होता है।
इसमें (सदभावमें) परमार्थ और लोकहित ही सर्वोपरि होता है जब हम किसी निर्धन और लाचार मनुष्य की अथवा प्राणीमात्र की सेवा में भी ईश्वर-पूजा के समान भाव रखते है। बस यह भाव ही हमारी अन्तः करण की प्रसन्नता का कारण होता है। इसी प्रसन्नताके रहते ही हम अपने कर्तव्यपालन करनेमें प्रतिक्षण उत्साहित रहते हैं। यही भाव सद्भाव है।
गीता मेंइसको ही ‘अभिरति’ कहा गया है। कृपया समझने का प्रयास करेंगे- शास्त्रों के अनुसार हम सभी प्राणी उस परमात्मा से ही उत्पन्न हुए हैं तथा वह परमात्मा ही सभी प्राणियों में बर्फ में जल की तरह विद्यमान है। बर्फ का आकार अवश्य दिखाई देता है लेकिन वह जल ही है इसी प्रकार सभी प्राणी दिखने में भले ही भिन्न-भिन्न हो, परन्तु यथार्थ में ईश्वर के ही स्वरूप हैं। बात छोटी-सी है परन्तु समझ मेंआ जाये तो व्यवहारिक जीवन जीते हुए भी हमारा प्रत्येक कर्म हमें ईश्वर (परमानन्द)की दिशातक लेजायेगें।
बस, एक बात औरसमझ लें- हम कर्तव्य कर्म को सांसारिक स्वार्थसिद्धि करने का कारण न बनायें- यही ‘निष्कामकर्म योग’ की साधना होगी। इसके अतिरिक्त ये भी ध्यान रखना होगा कि हम जिसके प्रति अपना कर्तव्य-कर्म कर रहेहैं, वह भगवान के रूप में ही हमारे सामने है। उसके हित के भाव से जो भी कर्म किया जायेगा, उससे एकअभिरति पैदा होगी। जिसके द्वारा ईश्वर(परमानन्द) प्राप्ति का मार्ग प्रशस्तहो जायेगा।
कभी- कभी हमको भ्रम होता है कि यदि हमारे सभी कर्तव्य कर्म दूसरों के हित केलिये हो जायेंगे तो हमारा स्वयंका निर्वाह कैसे होगा? परन्तु आप निश्चिन्त रहें – यह मात्र हमारी बुद्धि का भ्रम हीहैं। क्योंकिहमारे सन्त,सद्गुरू औरआचार्य हमकोयही समझातेहै – परमार्थ पर दृष्टि रखोगे तो आपका अपना हित भी होगा।
इसीलिये परमात्मा से प्रार्थना करते रहें – हे परमात्मा, हमारी वहीं कमाई हो जिससे हमारा एवं हमारे परिवार का सादगी से निर्वाह हो सके, हमको कभी भी बेईमानी औरठगी की आवश्यकता न पड़े। हे परमात्मा, हमारे लिये वहीं पर्याप् तहै।
वह योग्यता दो – सत्कर्मकर लूं।अपने हृदयमें सद्भावभर लूं।
नर तन है साधन भव सिन्धु तर लूं। ऐसा समय फिर आये न आये।
हे नाथ अब तो ऐसी दया हो – जीवन निरर्थक जाने न पाये।
हम निष्काम प्रेमी बनें।(हमारे अन्तःकरणसे दुर्विचारोंऔर निजस्वार्थ भावोंका क्षयहो।)
जय श्री कृष्ण
विनीत
भागवतभूषण आचार्य पं॰जयप्रकाश शर्मा‘याज्ञिक’